पल पल कटते ये पल यूं ही गुजर जाते हैं,
किन्ही ख्वाबोँ में खोये-खोये मकाम निकल जाते हैं,
सपनोँ की दरारो से बचपन दिखाई पड़ता है,
दौड़-भाग में गुजरते वक्त का ठहाका सुनाई पड़ता है
जिंदगी के हर लम्हे में एक परछाई सी दिखाई देती है,
इस दौर के कोलाहल में भी एक तन्हाई सी सुनाई देती है,
आज बिना नक़ाब के अस्तित्व अधूरा लगता है,
'पहली कलम' से ना जाने क्योँ, व्यक्तित्व फिर भी पूरा लगता है!!
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